Sunday, June 20, 2010

पत्रकारिता देश की आवाज़ या पूंजीपतियों का रक्षा कवच..........?

वास्तिवकता चाहे जो रही हो देश के इतिहास में संविधान में सुनहरे दीपक से निकलती इसके प्रकाश की किरने अब कुंद हो चुकी हैं बात ज्यादा पुरानी नहीं है देश की आज़ादी के पहले का समय रहा हो या बाद का इस कौम ने हमेशा अपने आदर्शों एवं देशभक्ति का परिचय दिया लेकिन जैसे ही इलेक्ट्रोनिक मीडिया का उदय हुवा वैसे ही देश की दशा और दिशा बदलने वाली इस कौम की कलम की धार भी कुंद होने लगी राजनितिक दलों की ही भांति ये भी जातिवाद एवं धर्मो में बटते गए और हालत यहाँ तक हो गए की ये आपस में ही गुटबाजी के शिकार हो गए आज हालत ये है की कलम की ताकत से सरकार बनाने,बिगाड़ने वाली ये कौम राजनितिक दलों तथा पूजीपतियों के हाथ की कठपुतली मात्र बन कर रह गयी हैं आज पत्रकारिता ने जिस तरह से व्यवसाय का रूप ले लिए है वो जितना दुखद है उतना ही दुर्भाग्यपूर्ण भी है यहाँ ये कहना कतई गलत नहीं होगा की इस पेशे में दलाल प्रविर्ती के लोगों का वर्चस्व है हम बात करें अगर इनके आचरण की या जीवन शैली की उससे कहीं भी ये नहीं लगता की ये देश के प्रति ईमानदार हैं समाज के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वाहन कर रहे हैं इलेक्ट्रोनिक मीडिया के उदय के साथ ही उसमे रोजगार की आपार संभावनाओं को देखते हुए देश का वो युवा वर्ग जो बचपन से ही इससे प्रभावित रहा है आकर्षित हुए बिना न रह सका और साहूकारों की नज़र में ये व्यवसाय भी कमाई का अड्डा बन गया वैसे भी जिस देश में भगवान् का सौदा करने वाले उद्योगपती हों वहां क्या नहीं बिकेगा देखते ही देखते देश में सैकड़ों की संख्या में पत्रकार बनाने वाले कालेजों का उदय हो गया और एक मोटी रकम के साथ डिग्रियां रेवड़ियों की तरह बंटने लगी अब ज़रूरत देश में शिक्षा का ढांचा बदलने की चाहे बात कानून की हो या फिर पत्रकारिता की या प्रोफेशनल कोर्सों की सरकार को इन सभी को अनिवार्य विषय के रूप में स्नातक से ही इसको शामिल कर देना चाहिए इंटर के बाद इनमे से किसी भी कोर्से में दाखिले के लिए अभ्यर्थी को पात्र कर देना चाहिए लेकिन अगर ऐसा हो गया तो इन साहूकारों और शिक्षा के दलालों का क्या होगा ये प्रश्न ज़रूर सरकार को परेशान कर सकता है..

कभी प्रिंट मीडिया अपने आप में देश की एक सशक्त आवाज़ हुवा करती थी लेकिन जब से बाजारवाद हावी हुवा है इनकी पैनी कलम की धार भी कुंद हो चुकी है आज कोई भी अख़बार उठा कर देख लीजिये ये सांडे के तेल से लेकर जादू टोना करने वाले तांत्रिकों के प्रचारों से भरा पड़ा रहता है
इतना ही नहीं ख़बरों को बिना जांचे परखे सिर्फ लोगों से सुन कर ये सनसनी फ़ैलाने का काम भी करते रहते हैं यहाँ तक की कई बार इनको सार्वजानिक रूप से माफ़ी भी मांगनी पड़ती है वैसे जितने भी अख़बार हैं सब अपने आप को देश का नंबर1 अख़बार कहते नहीं थकते कोई सच बेचने का दावा करता है कोई समाज की बुराइयों को प्रमुखता से छपने की बात करता है लेकिन आचरण सभी का कैसा हम सब जानते हैं ख़बरों से ज्यादा इनमे प्रचार होता है और प्रचार भी कैसे बताने की ज़रूरत नहीं देश के युवा वर्ग को गुमराह करने के लिए हर अखबार प्रमुखता से एक प्रचार छापता है मीठी बातें दोस्त बनाइये और न क्या क्या स्लोगन होते हैं लेकिन फिर भी ये कहते हैं की हम देश की आवाज़ हैं क्या देश को सांडे का तेल चाहिए या जादू टोना करने वाले तांत्रिक फ़कीर या फिर मीठी बातें करके दिल बहलाने वाले फ़ोन नंबर चाहिए होते हैं ये सब देश की खातिर छापने पर मजबूर रहते हैं,
इलेक्ट्रानिक मीडिया का बढ़ता दायरा आज जिस तरह से छोटे छोटे दलालों का हथियार बनता जा रहा है उसकी नजीर हम अपने शहर में देख सकते हैं जहाँ ये केबल न्यूज़ लोकल स्तर पर चलाते हैं वहां इनके दलाल जनत का शोषण करते आपको अस्सानी से दिख जायेंगे सोचने वाली बात ये है की जब छोटे स्तर पर ऐसा है तो प्रदेश और राष्ट्रीय खबरिया चैनलों का क्या होगा ये जिस तरह से ख़बरों को सनसनी में बदलते रहते हैं उससे ये कौन सी क्रांति लाना चाहते हैं समझ से परे है हाँ ये ज़रूर है है की जिस तरह से इलेक्ट्रोनिक मीडिया का आगाज़ हुवा था उसको देख कर ये ज़रूर लगा था की अब देश के भ्रष्ट राजनेता, अधिकारीयों की जमात की खैर नहीं लेकिन जैसे जैसे वक़्त बदला सब कुछ सामान्य हो गया देश की ये जमात भी अब सास बहु के धारावाहिकों की तरह बन कर रह गया कुछ चैनल तो ऐसे हैं जो सिर्फ गोसिप पर चल रहे हैं ये खबरिया चैनल न हो कर मनोरंजन का साधन मात्र बन कर रह गए हैं.