Saturday, March 21, 2009

लोकतंत्र के पशुबज़ार में स्वागत है.......

विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में लगने वाले पशु बाज़ार में आपका स्वागत है, यही एक ऐसा लोक तंत्र है जहाँ जनता पशुवों की मानसिकता की है जिनके भाग्य का फैसला हमारे देश के बड़े उद्योगपति करते हैं और ये पशुबज़ार के खरीदार राजनितिक दल इन्ही उद्योगपतियों से चंदा लेकर जनता के वोट की बोली लगाते हैं और जनता भी पशुवों की भांति उनसे भी कम दामों में बिकती रहती है और फिर उन्ही खरीदारों के हांथो जुतियाई भी जाति है पहले ये अपने पशु होने का सबूत देते हैं जब वोट करते हैं तो देश,विकास,बेरोजगारी,शिक्षा,स्वास्थ जो की इनका अधिकार है के विषय में नहीं सोचते तब जाति, धर्म और क्षेत्रवाद जैसे मुद्दों पर ये वोट करते हैं लेकिन जैसे ही सरकार बनती है और जनता के डंडा करना शुरू करती है इनकी इंसानियत जाग जाति है और ये घडियाली आंसू बहाना शुरू कर देते हैं और एक दुसरे को कोसना शुरू कर देते हैं और शुरू होता है आन्दोलन और धरनों का दौर इसमें ये किसी और का नहीं अपना खुद का नुकसान करते रहते हैं लेकिन इससे सबक न सीखते हुए फिर जब चुनाव निकट आने लगता है ये देश विकास समाज सब भुला कर अपने पशुत्व पर लौट जाते हैं और जब इनके सामने कोई ऐसा व्यक्ति चुनाव में ताल ठोकता है जिसके पास सिर्फ कर्म है सत्यता है कर्मठता है तो यही लोग उसे मुर्ख समझ कर उस पर हंसते उसकी जमानत जप्त करते हैं और गुंडों के भ्रष्ताचारिओं के पिछलग्गू बने उनकी जय जय कार करने में ही अपना सर गर्व से ऊँचा रखते हैं तो कुकुरमुत्तों की भांति क्यों ना इस देश में राजनितिक दल हों। जब जाति,धर्म,क्षेत्र के नाम पर जनता वोट करेगी तो पार्टियाँ भी इसी आधार पर बनेगी और पशुबज़ार में खरीदार भी बढ़ेंगे लेकिन इसके बदले जनता को क्या मिलता है ये सवाल ज़रूर एक बेहतर मुद्दा हो सकता है..........,

आपका हमवतन भाई ....गुफरान.....अवध पीपुल्स फॉरम फैजाबाद.

2 comments:

संगीता पुरी said...

जब जाति,धर्म,क्षेत्र के नाम पर जनता वोट करेगी तो पार्टियाँ भी इसी आधार पर बनेगी और पशुबज़ार में खरीदार भी बढ़ेंगे लेकिन इसके बदले जनता को क्या मिलता है ये सवाल ज़रूर एक बेहतर मुद्दा हो सकता है..........,
बहुत सही ...

Anonymous said...

यदि हम इंसान बन जाएं तो समस्‍या ही नहीं रहेगी लेकिन आपका कहना क्‍यों माने।